Wednesday, May 5, 2010

Bachpan ki masumiyat

"बचपन की स्मृतियों में एक विचित्र-सा आकर्षण होता है| कभी-कभी लगता है, जैसे सपने में सब देखा होगा|"
मैंने बचपन में अलग ही शौक पाल रखे थे जिन्हें याद करके आज बहुत हँसी आती है| जब मैं पहली या दूसरी क्लास में था, तब की बात है| मुझे पढ़ाने का बहुत शौक था| मैं रोज़ शाम मम्मी से यह कहकर कि मैं खेलने जा रहा हूँ, घर से बहार चला जाता था| और शायद कोई यकीन न करे, उस समय हमारे एक पडोसी के मुझसे भी छोटे बच्चों का पढने का समय होता था और मैं भी उनके माँ-बाप के साथ उन्हें पढ़ाने लग जाता था| कितना मज़ा आता था| शायद यही एक वजह है कि खेलने में मेरी ज्यादा रूचि नहीं है| आज भी जब मैं उन अंकल-आंटी से मिलता हूँ, तो वो येही कहते हैं, "तुम बहुत दिनों से पढ़ाने नहीं आये|" माँ भी मुझे यही ताना मरकर चिढाती रहती हैं|

दो घटनाएं ऐसी हुई जो दो-दो बार होने के बाद मैंने फिर कभी हिम्मत नहीं की| पहली घटना घर छोड़कर जाने की और दूसरी घर में अकेले पड़े दरवाज़ा बंद करके सो जाने की| याद नहीं क्यों लेकिन एक बार किसी वजह से मैं माँ-पापा से नाराज़ हो गया और गुस्सा होकर घर से बाहर चला गया (ये सोचकर कि वापस नहीं आऊंगा) लेकिन पापा भी मेरे पीछे-पीछे आये और मुझे समझा-बुझा कर वापस ले आये| तब तो ठीक था लेकिन जब दोबारा हिम्मत की तो इतनी दांत पड़ी की आगे ये करने की गुंजाइश ही नहीं बची| दूसरी घटना ऐसे हुई कि मैं घर में अकेला था और पापा-मम्मी और दोनों दीदी भी कहीं गए हुए थे| वैसे तो शाम को दस बजे से पहले मैं कभी सोता नहीं लेकिन उस दिन पता नहीं क्यों मेरी आँख लग गयी| और पापा-मम्मी बंद दरवाज़े के बाहर खड़े ठीक १ घंटे तक चिल्लाते रहे| मैं नहीं उठा और जब वो थक गए तो पापा ने खिड़की खोली और १ लठ जो बाहर पड़ा था उसे छुआकर मुझे जगाने की कोशिश की| तब जाकर मैं उठा| पहली बार तो उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा लेकिन जब दोबारा ऐसा हुआ तो फिर मुझे बहुत डांट पड़ी| गनीमत तो यह थी की दोनों बार मैं आगे वाले कमरे में सोया था| अगर पीछे सोया होता तो..........................|

continued in next post..................

No comments:

Post a Comment